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कविता

पुरुष दंभ

अर्पण कुमार


गौर से सुनो
अँधेरी रात के गहराते
खामोश पलों को
जिसको चीरती चली आ रही है
पानी की गड़गड़ाहट
तुम्हारे कानों तक
और तुम्हें अच्छी तरह पता है
गड़-गड़ के इस अनाहूत, अनवरत स्वर के पीछे
दम साधे किसका आत्मविस्मृत,
हृदयविदारक विलाप है
मगर तुम निस्पंद बैठे हुए हो
बहरे होने का ढोंग करके

मंद-मंद बहती नदी
स्वयं में सिमटती
जाने कितने युगों से
डूबती-उतराती रही है
अपने ही आँसुओं के सैलाब में

सोचो,
अगर एक नदी यूँ अश्रुपूरित है
तो इतिहास और परंपरा के
किन कठोरतम अध्यायों और
दुरभिसंधियों ने
एक सहज, प्रवहमान नदी को
यूँ जार-जार रुलाया होगा

सोचो,
नदी की शीतलता और मिठास लेकर
उसके देय को
सिरे से खारिज कर देने
और उसकी अवमानना करने के
अपने परंपरागत, रूढ़िजनित
पुरुष-दंभ की कथित रूप से
गर्वित, अग्रिम पंक्ति में
कहीं तुम भी तो
खड़े नहीं हो

 


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